खुदखुशी
आज चिंतित दुःखी , मन ये उद्विगना है |
क्या मूल्य जीवन का, कमतर यू संदिग्घ है ||
खुदखुशी हो गयी क्यों , बड़ी आज कल |
जिंदगी छुद्र रुढ़ ,क्यों गिरी धरती पर ||
क्यों टूटते सिसकते ,तड़पते ये सपने |
सिसकियों में सिमटते ,मचलते ये सपने ||
मुस्कराहट का चेहरा ,मुखौटा लिए |
घूमते मिथ्या खुशियाँ ,प्रसन्ता लिए ||
पीछे इन नकली भ्रमित, करती मुस्कान में |
क्या छिपा है कष्ट ,दुःख के तरणताल में ||
क्या जरुरी नहीं मन ग्रंथि ,खोले अब सभी |
दुःख रुस्वाई खुलकर ,मन की बोले अब सभी ||
दूर हो जाएगी ,मन की पीर शिथिलता |
हो न किंचित उपेक्षित , कर ये दृढ़ फ़ैसला ||
क्यों न खुलकर कहते, अपने मन की व्यथा |
किस तरफ चल पड़ा , अब युवाजन सर्वथा ||
आत्म हत्या न ,कोई समाधान है |
इस अमूल्य ,जीवन का अपमान है ||
मुक्ति बिलकुल नहीं , प्राप्त होती इससे |
क्रुद्ध भगवान प्रकृति , होती है बस इससे ||
मिलता सम्मान न , लोक परलोक में |
बिलखते रहते परिवार , बस शोक में ||
आत्मा जब देखती ,होगी इस दृश्य को |
कोसती ग्लानि करती , अपने औचित्य को ||
हाय ऐसा कदम , क्यों मैंने लिया |
क्रोध कुंठा की अग्नि में, प्राण आहुति दिया ||
क्या मिला मुझको ,ऐसा कृत्य करके |
जीत जाता शायद ,लड़ता नित्य उठके ||
मन अवस्था को अपने , बदल सकता था |
इस खुदखुशी से शायद ,मै बच सकता था ||
सिर्फ अपने आत्मबल , को जगाने का था |
इस अमूल्य जीवन ,को बचाने का था ||
ठीक हो नहीं सकता , ऐसा कुछ तो न था |
प्रेम जीवन के प्रति ,बस जगाने का था ||
राह पर अपने खुद के , लौट आने का था |
आत्म हत्या से , खुद को बचाने का था ||
जीवन में बहुत कुछ , अभी पाने को था |
नव सृजन कर ,जीवन चलाने का था ||
आत्म हत्या से खुद को बचाने का था.....
_ सन्तोष कुमार तिवारी
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